मनुष्य,मनुष्यता,मानवीय संवेदनाएं और शिक्षक– शिष्य

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वैचारिक क्रांति :–17

भौतिकतावादी समाज में व्यक्ति केवल खुद तक ही सीमित रह गया है। भौतिक कल्मष में जकड़ा अपने व्यक्तिगत स्वार्थ पूर्ति में ही अपना सम्पूर्ण तन मन इंद्रिय और उनकी तन्मात्र तक को क्या नही लगा चुका है। प्रकृति में पदार्थ,प्राण,जीव और ज्ञान की इकाई है।तीनो इकाई अपना अपना कार्य,योगदान और निर्वहन कर रहे है। लेकिन क्या ज्ञान अवस्था की इकाई मानुष अपने सम्पूर्ण दायित्व निभा रहा है? परिवार,समाज,राष्ट्र के प्रति कितना समर्पित है और सबसे बड़ी बात है इस प्रकृति के साथ इसके प्राणजीव जगत के साथ परस्पर कितना कर्तव्य ग्राही है? केवल निहित स्वार्थ के लिए दोहन नही कर रहा है। दोहन करने के साथ संरक्षण का विकल्प बना रहा है? और अगर कोई विकल्प बनता भी है तो क्या उसका संवर्धन और संरक्षण उचित हो पाता है?सोचिए।

मानव अर्थात मतिमान,ज्ञान अवस्था की इकाई। जिसका उद्भव अन्य तीन के बाद हुआ और वह केवल मति के कारण इन सब पर अपना अधिकार किया एक छत्र राज किया। लेकिन किसी अहंकारी और निरंकुश राजा के सामान ही तो अपने हितबद्ध कार्य किया। क्या जनकल्याण हुआ? क्या माता स्वरूपा प्रकृति का संरक्षण हुआ। क्या जीव जगत अपने आश्रय स्थल को भटके नही? क्या जीव विलुप्त हुए नही?क्या खाद्य श्रृंखला का सही संचालन हुआ है? क्या जैव विविधता का चक्र सही रहा है?क्या ऋतुओं का संतुलन सही है, क्या प्राकृतिक आपदाओं का दंश नही है?क्या जीवनदायिनी प्राणवायु और सुरक्षा कवच में छेद नही हुआ है? माना की आवश्यकता आविष्कार की जननी है लेकिन कोई जरूरत अगर आपके सभ्य समाज,आपके पर्यावरण,आपके संस्कृति,आपके जैविक संतुलन को बिगाड़ के मिले तो यह काल ग्राही होगा। जिसे मानुष का आंख मूंद के स्वीकार करना और स्वयं पोषित होने का भाव रखना आने वाले समय में बड़े विनाश का सूचक है । नैतिक जिम्मेदारी से भागना और सामाजिक पतन मनुष्य के लिए मनुष्य जन्म के लिए महापाप है।

परहित सरिस धरम नही भाई।
परपीड़ा सम नही अधमाई।।

परोपकार से बढ़कर दूसरा धर्म नही है और किसी को दुख पहुंचाने से बढ़कर कोई दूसरा अधर्म नहीं है।।

गोस्वामी तुलसीदास,स्वामी रामकृष्ण,स्वामी विवेकानंद,शकराचार्य आदि ने अपना मनुष्य जन्म सफल कर लिया। वसुधैव कुटुंबकम् के राह में चलने को प्रेरित किया। लेकिन क्या यह केवल महान विभूतियों का काम है? और अगर वे महान हुए तो कैसे अपने कर्म से न? विष्णुगुप्त आचार्य चाणक्य ने कहा है कि मनुष्य अपने कर्मों से महान बनता है, जन्म से कोई भी व्यक्ति महान नहीं होता है। इसलिए मनुष्य को अपने कर्म हमेशा अच्छे रखने चाहिए। जितनी भी महान विभूतियां हुई है उन्होंने ऐसा कर्म किया है जिसके कारण वे वंदनीय हुए है।

वर्तमान भौतिक वादी मनुष्य खुद के लिए बस जी रहा है। फिर कैसे मनुष्य?कैसी मनुष्यता?जबकि अन्य अवस्था तो अपने में सही ही है। लेकिन मति धारियों की मति मारी क्यों जा रही है। पशु अपने लिए जीते है। लेकिन कभी कभी तो पशुओं में भी एक दूसरे के लिए भारी कर्तव्य बोध और संवेदनाएं दिख जाया करती है लेकिन मनुष्य क्यों भावना विहीन हो रहा है। कुछ तो अपने परिवार और समाज के प्रति भी संवेदनशुन्य है। क्या यही मनुष्यता है। अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए भी गरीब निर्धन आदि की सेवा करना । जनहित करना क्या यही मनुष्यता है। नि स्वार्थ कहा है? इसके साथ ही मैं की भावना और इस मैं के साथ अच्छा की भावना। जैसे सही से जीवन जीने भर को भौत्तिकवाद और अतिभौतिक वाद और जैसे महत्वकांक्षी और अति महत्वाकांक्षी और एक अवसरवादी अति अवसरवादी । अति सर्वत्र वर्जयेत क्यों कहा गया है। जीव सेवा वो भी शिव ज्ञान से। रामकृष्ण जी ने सूत्र दिया। कितनो को इसका अर्थ तक पता है। उत्तिष्टत जागृत प्राप्यवारन्नी निबोधत स्वामी जी के इन वचनों के पीछे कौन से लक्ष्य की प्राप्ति है। और तब तक रुकना नही है। कई बार तो स्वयं की स्वार्थ सिद्धि के लक्ष्य हेतु भी उक्त उदाहरण को प्रस्तुत कर दिया जाता है। मेरा अच्छा घर हो,मेरे पास अच्छी गाड़ी हो,मेरे पास धन का भंडार हो और सभी अच्छी कही जाने वाली और भौतिक संसाधन में कोई कमी नही हो।सामान्य व्यक्ति इसी के अधीन अपना जीवन संपूर्ण बीता देता है। और एक बड़ा वर्ग दो वक्त की रोटी के जुगाड में रहता है। एक बड़ा वर्ग धन संपदाओं को कचरकूट भर लिया है फिर भी सुख से नही है। सुख मिलेगा कैसे?भागते रहोगे दौड़ते रहोगे तो सांसे फुलेंगी ही ना। कभी रुका क्या?थोड़ा विश्राम किया क्या?जिसने तुम्हे ये जीव जगत में भेजा उसका धन्यवाद किया क्या।स्वार्थ में रहित हो ईश्वर के जप आदि अपने कर्तव्य किए क्या। ठगों को छोड़कर क्या संतो की वाणी को सुना या सुनकर अनुसरण किया क्या? देखिए अर्थाति आत्र जिज्ञासु और ज्ञानी ये चार प्रकार के भक्त होते है ईश्वर के। अर्थात्री और आत्र अर्थात धनलोभ स्वार्थ और पीड़ा कष्ट निवारण इन दोनो को छोड़कर क्या कोई जिज्ञासु और ज्ञान पिपासु होकर ईश्वरीय सत्ता को समझने का प्रयास करते हुए ब्रह्म तत्व को जानकर या जनाने की कोशिश करते हुए अष्टांग योग के मार्ग आदि को समझा कभी। यम नियम,आसान,प्रत्याहार,प्राणायाम, धारणा,ध्यान और समाधि। क्या है। आज 90 प्रतिशत युवाओं को तो इनसे कुछ लेना देना नही है। क्योंकि उन्हें शिक्षा नही मिली। आध्यात्मिक वैदिक शिक्षा। आज शिक्षा केवल उत्तीर्ण होकर नौकरी पाने,व्यवसाय करने आदि तक ही सीमित हो गया है। माता पिता का रुझान गुरुकुल शिक्षा पद्धति से हटकर केवल अंग्रेजी शिक्षा को लालायित है। एक विदेशी लॉर्ड मैकाले ने कहा था कि भारत देश को तोड़ना है तो इसकी सभ्यता संस्कृति में वार करो तोड़ डालो और इसके शिक्षा व्यवस्था को बदल डालो भारतीय अपने भाषा को हीन समझे और अंग्रेजी में गौरव करें। यही तो हो रहा है। शिक्षक दिवस है माता पिता के बाद मुझे जिन शिक्षकों ने शिक्षा दी उसके लिए मैं जीवन पर्यंत उनका आभारी हूं और जो ऋण है वह चुका नही सकता। लेकिन क्या वर्तमान समय में शिक्षक भी अपनी भूमिका का सही निर्वहन कर रहे है? या केवल किताब में लिखे अंग्रेजी,गणित भूगोल और विज्ञान तक ही सीमित है। क्या नैतिक ज्ञान,वैदिक ज्ञान आध्यामित ज्ञान दिए जा रहे है। छात्र को मजबूत और संबल देने वाले,उन्हे बौद्धिक रूप से मजबूत करने वाले पाठ्यक्रम है? क्या ऐसे प्रयोग है जिनसे वो एक योग्य भावी पीढ़ी और भारत देश का प्रतिनिधित्व कर सकें। नही। उक्त दायित्व केवल सरकारी कर्मचारी बनकर शासकीय दायित्व के निर्वहन के साथ केवल वेतनभोग का साधन ही है। और क्या आज छात्र अपने शिक्षक के प्रति कृतज्ञ है?क्या आज छात्र अपने शिक्षक के दिए ज्ञान के लिए उनका ऋणी है? नही एकाद सभ्य को छोड़ तो बाजार में शिक्षक को देख कर भी विद्यार्थी मुंह घुमा के चल देते है फर्राटे से अपनी गाड़ी में दोस्तों के साथ। कुछ तो बड़े मुश्किल से नमस्ते करके निकल लेते है। कुछ तो वो भी नही करते जैसे कोई है ही नही। कुछ विद्यार्थी अपने ही शिक्षकों के लिए घृणित और कुत्सित मानसिकता रखते है।।कुछ विद्यार्थी अपने ही शिक्षको को प्रेम के संदेश भेज रहे है। कुछ छ्त्राएं अपने ही शिक्षक के शोषण का शिकार हो रही है। स्कूल में ही अमर्यादित नाच गाने में शिक्षक और छात्र नाच रहे है। मुझे और आप सबको भी ये सब सुनने देखने को समाचारों के माध्यम से मिल ही जाता है। कहा है वह गुरु और शिष्य का संबंध वह परम्परा। फिर एक दिन के लिए शिक्षक और उनका सम्मान यह कैसा विधान? इसके लिए पहले मनुष्य होकर भी पशुता का नही मनुष्यता का आचरण करना होगा। मानवीय संवेदनाओं का होना जरूरी है।जरूरत के अनुसार रहे। और ईश्वर का प्राणिधान और अध्यात्म जरूरी है साथ ही स्वाध्याय। जिससे प्रभाव होगा और सही मायने में शिक्षा के महत्व समझते हुआ अपना सर्वांगीण विकास करेंगे, समाजिक स्तर भी उठेगा और जनकल्याण होगा।

आलेख 

एस. के.”रूप”

बैकुंठपुर कोरिया छत्तीसगढ़