अशोक अग्रवाल और ‘संग साथ’

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                       – दिवाकर मुक्तिबोध –                                  **********************

25 फरवरी 2022 । इस दिन मैं बंगलुरू में था, बेटे के यहां। इस शहर की सुबह वैसे भी बहुत सुहावनी रहती है, पर 25 की सुबह मुझे कुछ अधिक प्यारी व आनंददायक लगी । दरअसल इसकी मूल वजह थी मेरे लेखन के विषय में वह फोन जो अशोक अग्रवाल जी ने किया था। मेरे अनउत्तरित फोन के जवाब में उनका जवाबी फोन कॉल। वे मेरे लिए नितांत अपरिचित थे। मैं यह भी नहीं जानता था कि वे प्रकाशन के व्यवसाय में हैं। अलबत्ता चंद दिन पूर्व ही लेखक के बतौर उनके कुछ संस्मरणात्मक लेख मैंने पढ़े थे अरूण देव जी की वेब पत्रिका ‘ समालोचन ‘ में। अद्भुत, मन को छुने वाले अनेक प्रसंग थे। उनके मित्रों के, कवियों के, जिनके साथ उन्होंने लंबा वक्त बिताया। उन्हें पढ़ा और दिल बाग-बाग हो गया। उनके लेखन का मुरीद हुआ। मन उनके करीब इसलिए भी आया क्योंकि ‘ समालोचन ‘ में प्रकाशित उनका एक संस्मरण विनोद कुमार शुक्ल जी पर भी था। हमारे विनोद कुमार शुक्ल, हमारे छत्तीसगढ़ के। शुक्ल जी पर इतना अच्छा और यादगार शब्द चित्र इसके पूर्व मैंने कहीं और नहीं पढ़ा था। लेखक व प्रकाशक के बीच आत्मिक संबंध किस तरह के होने चाहिए ,उसकी बानगी था यह लेख। शुक्ल जी का पहला व प्रख्यात उपन्यास ‘ नौकर की कमीज ‘ के प्रकाशन के संदर्भ में विचार विमर्श के लिए अशोक जी ने उन्हें अपने यहां हापुड़ में आमंत्रित किया था। विनोद जी हापुड़ गए व उनके घर में ठहरे। लेखक व प्रकाशक का ऐसा मिलन शायद ही कभी देखने में आया हो। बेहतर से बेहतर करने एवं संबंधों को जीवंत रखने की अद्भुत पहल थी यह। इसलिए जब अशोक जी फोन आया तो मन उल्लास व अपूर्व सुख से भर उठा।

दरअसल अशोक जी से शायद ही जुड़ाव हो पाता यदि उन्होंने मेरे कुछ संस्मरणों पर अपनी संक्षिप्त टिप्पणियां न दी होतीं। ‘ कुछ यादें कुछ बातें ‘ शीर्षक के साथ पत्रकारिता पर मेरे संस्मरण की श्रृंखला उसी कालखंड में फेसबुक पर पोस्ट हो रही थीं। फेसबुक की तासीर है फटाफट प्रतिक्रियाओं की, सो लगभग प्रत्येक किस्त पर दर्जनों की संख्या में मैसेज आ रहे थे। बीस, बाइस व चौबीस वाली कड़ी में अशोक अग्रवाल जी की भी प्रतिक्रिया थीं। उन्होंने दो-तीन लाइनों में उनकी सराहना की थी। चूंकि वे मेरे फेसबुक फ्रेंड नहीं थे इसलिए उनकी टिप्पणियों को देखने के बाद सहज जिज्ञासा उन्हें जानने की हुई। गुगल के जरिए मैंने उनका अतापता जान लिया। लेखक, कथाकार, यात्रा वृतांती व संस्मरणकर्ता। इतनी जानकारी लेने के बाद प्रख्यात ‘ समालोचन ‘ की साइट पर गया और उन्हें पढ़ना शुरू किया। पढ़ते-पढ़ते ऐसा लगा मानो मैं दूसरी दुनिया में पहुंच गया हूँ जहां शब्द ही शब्द है, भावनाओं से भरे , प्राणवान, ऊर्जावान। ऐसा महसूस हुआ मैं अशोक जी को बरसों से जानता हूँ। यह शब्दों की शक्ति ही थी जो इस अपरिचित लेखक से भावनात्मक रूप से जुड़ गई थी। उनके प्रति अनायास श्रद्धा उमड़ आई। लेखक व पाठक आत्मा से इसी तरह जुड़ते हैं। फेसबुक पर उनकी प्रतिक्रिया ने मुझे प्रेरित किया कि मैं उन्हें फोन करूँ। उनका मोबाइल नंबर हासिल किया तथा उनके प्रति आभार व्यक्त करने फोन की घंटी टनटना दी।

इस बीच मुझे जानकारी हो गई थी कि वे हापुड़ में ‘ संभावना ‘ नाम से अपनी प्रकाशन संस्था चलाते रहे हैं । इस प्रकाशन संस्था से देश के अनेक नामी गिरामी कवियोँ, लेखकों ,कथाकारों की किताबें पहले पहल छपीं हैं। यह भी पता कि कुछ विश्रांति के बाद ‘ संभावना ‘ नयी ऊर्जा के साथ पुनः प्रकाशन व्यवसाय में दाखिल हुई है और अब उसका नेतृत्व अशोक अग्रवाल जी के चिरंजीव अभिषेक अग्रवाल कर रहे हैं।’ संभावना ‘ के वेबसाइट पर गया। अहसास हुआ कि यह बड़ी प्रकाशन संस्था है। और अशोक अग्रवाल बड़े लेखक,कथाकार। उनके फोन के पूर्व मुझे जरा भी इल्म नहीं था कि उनकी ओर से कोई प्रस्ताव मुझे मिल सकता है। पत्रकारिता व परिजनों पर लिखे व फेसबुक पर छपे मेरे संस्मरणों को किताब की शक्ल में संभावना से छापने का प्रस्ताव। अभूतपूर्व आनंद से गुज़र गया था मैं। मेरा परिवार।

25 फरवरी को फोन पर अशोक जी से संक्षिप्त बातचीत हुई। उन्होंने पूछा क्या आप अपनी किताब ‘संभावना ‘ से छपवाना पसंद करेंगे ? मुझ जैसे नितांत सामान्य पत्रकार के लिए इससे अच्छी बात और क्या हो सकती थी ? बहरहाल फोन के बाद मैसेंजर पर उनका संदेश आया – ” मेरी अभी अपने बेटे अभिषेक से आपके बारे में बात हुई। वह आपके संस्मरणों की किताब संभावना प्रकाशन से छापने का इच्छुक है। अगर आप अपनी सहमति देते हैं तो मुझे भी खुशी होगी। ‘” मैसेंजर पर मेरी सहमति के बाद आगे उन्होंने लिखा – ‘ इस सिलसिले में अभिषेक खुद आपसे बात कर लेंगे।’

अशोक जी से 25 फरवरी 2022 को फोन व फेसबुक के मैसेंजर पर प्रारंभ हुई अनियमित वार्तालाप का सिलसिला किताब के छपने और कूरियर से पार्सल की रवानगी तक यानी 03 दिसंबर 2022 तक चला। इस दौरान किताब के शीर्षक से लेकर भूमिका तक पिता-पुत्र से विचार विमर्श होता रहा। शीर्षक के रूप में ‘ एक सफ़र मुकम्मल ‘ पर सहमति बनी। भूमिका के संदर्भ में उनका विचार था कि इस किताब में किसी और की भूमिका की जरुरत नहीं है, लेखक का आत्मकथ्य ही प्रभावी होगा। लिहाज़ा भूमिका को मेरी रजामंदी के बाद स्क्रिप्ट से हटा दिया गया। तय हुआ कि इसका उपयोग अन्य संदर्भ में किया जाएगा। जब किताब छपकर उनके हाथ में आई तो उनका मैसेज उत्साहवर्धक था। किताब के आवरण व उसके रूप-स्वरूप को उन्होंने बहुत पसंद किया था। रंग कल्पना रायपुर के मेरे साथी व अनुज रंगकर्मी अरूण काठोटे की थी। इसे पाठकों द्वारा भी काफी सराहा गया। इसका प्रमाण फेसबुकी व मौखिक प्रतिक्रियाएं थीं। पुस्तक की पहली फोटो कॉपी अशोक अग्रवाल जी की पोती व अभिषेक जी की बेटी ने जारी की जो मुझे वाट्सएप पर देखने मिली। बेटी के हाथ में नयी किताब, बहुत प्यारा व सुखद अहसास था।

किताब मार्केट में आई। एक सफ़र मुकम्मल हुआ। सो अशोक जी से फोन अथवा मैसेंजर पर बातचीत का क्रम भी टूट गया। लेकिन अभिषेक जी से सम्पर्क बना रहा। एक दिन खबर मिली कि अशोक जी स्वास्थ्य की समस्याओं से जूझ रहे हैं तथा दिल्ली के अस्पताल में भर्ती हैं। चिंता हुई पर बाद में खुश खबर यह थी कि उनकी तबियत सुधर रही हैं तथा वे हापुड़ के अपने घर आ गए हैं। इस दौरान बड़ी बात यह थी पिता की स्वास्थ्यगत तथा इतर समस्याओं के बावजूद अभिषेक जी ने धैर्य नहीं खोया, जुझते रहे, काम करते रहे। बहुत कम समय में उन्होंने ‘ संग साथ ‘ का प्रकाशन किया। स्वास्थ्य लाभ कर रहे पिता के लिए यह उनकी ओर से अनमोल उपहार था। इस पुस्तक में अशोक जी के अपने मित्रों, अग्रज कवियों, लेखकों के भावपूर्ण संस्मरण हैं जो अलग-अलग समय में उनके जीवन का हिस्सा रहे हैं। इनमें भावनाओं व विचारों का आवेग आनंदित भी करता है और कहीं कहीं गहन उदासी में भी पहुंचा देता हैं।

‘ संग साथ ‘ मेरे हाथ में भी है। जैसा कि पहले कह चुका हूँ इसमें संकलित कुछ शब्द चित्र, कुछ संस्मरण पहले पढ़ चुका हूँ, लेकिन उन्हें दुबारा पढ़ा। समय के अंतराल में पुनः पढूंगा क्योंकि जितनी बार पढूंगा, कुछ न कुछ नया महसूस होगा। उस फोटो अलबम जैसा जिसमे फोटो रहते हैं शब्द नहीं । इसमें शब्द अंकित हैं और जब अतीत के पन्नों को पलटते-पलटते पुराना लिखा सामने आ जाता है तो उसे पुनः बिना पढ़े रहा नहीं जाता। पढ़ने के बाद एक अलग किस्म के आनंद की अनुभूति होने लगती है। यादों की तासीर ऐसी ही है। वे कभी पुरानी नहीं होतीं। वे जीवन के साथ साथ चलती हैं। ‘ संग साथ ‘ का साथ भी इसी तरह का है। बेमिसाल।